ब्रिटिश उपनिवेशवाद और भारतीय प्रतिरोध- 3
जेल के यात्री
एक अज्ञात स्वतंत्रता सेनानी की प्रतिबंधित किताब
एवं महामना मदन मोहन मालवीय का प्रतिबंधित वक्तव्य ‘भारत में दमन चक्र’
संपादक - गजेंद्र पाठक
प्रकाशक - नयी किताब प्रकाशन, दिल्ली
प्रकाशन वर्ष- 2024

ईस्ट इण्डिया कंपनी के शासन में 1857 ई. तक ब्रिटिश भारत में 143 सिविल कारागार, 75 अपराधी कारागार और 68 मिश्रित कारागार बनाये जा चुके थे और कुल कैदियों की संख्या 75100 का आँकड़ा पार कर चुकी थी। 1857 के बाद जब पूरा देश कारागार में तब्दील हो रहा था और फाँसी के फंदे बाँधने के लिए इन कारागारों में जगह कम पड़ रही थी तब वास्तविक संकट यह था कि इन कारागारों में भयानक अव्यवस्था का माहौल था। कैदियों में साँस की बीमारी, चेचक, क्षय रोग, हैजा आदि जानलेवा बीमारियाँ आम थीं। मद्रास प्रेसीडेंसी में कैदियों की मृत्यु दर 42.62, बंगाल में 42.56 और बॉम्बे प्रेसीडेंसी में 33.5 प्रति हजार थी। जाति और मजहब के आधार पर भेदभाव अपमानजक थे और इस भेदभाव के पीछे ब्रिटिश हुक्मरानों की सोची-समझी रणनीति थी। भारत की सामाजिक स्थिति में जातिगत भेदभाव की जड़ें कितनी गहरी हैं इसकी जानकारी और इसके रणनीतिक उपयोग के लिए जेल के कैदी प्राथमिक ‘केस स्टडी’ थे। यही नहीं, ब्रिटेन की दवा कंपनियाँ अपने टीकों और दवाइयों का इन कैदियों पर बेहिचक ट्रायल करती थीं। मानवता के इतिहास में 'ड्रग्स ट्रायल' का यह काला अध्याय गंभीर शोध का विषय है। नहर बनाने, नदी की गाद साफ करने और दुर्गम स्थानों पर सड़क बनाने में इन कैदियों का उपयोग अमानवीयता की सारी हदों को पार करने वाला था।
ब्रिटिश भारत की कारागार व्यवस्था दुनिया की सबसे बड़ी कारागार व्यवस्था थी। 1860 ई. तक भारत की जेलों में हर समय औसत 70000 कैदी होते थे। 1900 ई. तक यह औसत 100000 के करीब था और 1930 ई. तक आते-आते 130000 के करीब कैदी जेलों के अन्दर थे।
- गजेन्द्र पाठक