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हिन्दी नवजागरण
प्रकाशक- विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी
प्रकाशन वर्ष- 2005

यह अध्ययन हिन्दी नवजागरण को भारतीय नवजागरण के सन्दर्भ में रखकर देखने का एक सार्थक प्रयास है। यहाँ औपनिवेशिक सत्ता से भारतीय मानस के टकराव और उससे उपजी स्वाधीनता की चेतना को नवजागरण का मूल माना गया है। इस पुस्तक में भारतीय अस्मिता की खोज के प्रयास का भी विस्तृत विवेचन है। साथ ही मैथिलीशरण गुप्त की 'भारत-भारती' और हाली की रचना 'मुसद्दस' का तुलनात्मक अध्ययन विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है। लेखक का यह निष्कर्ष ध्यान देने लायक है कि प्रकाशन की संस्कृति के कारण साहित्यिक विधाओं का किस प्रकार लोकतंत्रीकरण सम्भव हुआ।
विश्वास है यह पुस्तक लेखक के प्रथम प्रयास के बावजूद विषय की व्यापक और प्रामाणिक जानकारी एवं आलोचनात्मक समझदारी तथा अभिव्यक्ति की सराहनीय शैली के कारण अपने मकसद में कामयाब होगी।
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