सिंहलद्वीप में कालिदास और जायसी की याद
- Gajendra Pathak
- Oct 18
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अनुराधापुर साम्राज्य के राजकुमार कुमारदास कालिदास के अनन्य भक्त थे । कालिदास के ‘रघुवंशम’ के प्रभाव में उन्होंने ‘जानकी हरण’लिखा था और उसे कालिदास के पास आग्रहपूर्वक निमंत्रण के साथ भेजा । बताया जाता है कि कालिदास की उम्र तब अस्सी के करीब थी । इसके बावज़ूद वे कुमारदास के निमंत्रण को ठुकरा नहीं सके. रास्ते में कन्याकुमारी में उनकी पहली पत्नी पार्वती मिल गईं थीं जो दस्युओं के चंगुल से मुक्त होकर कालिदास की आख़िरी झलक पाने के इंतज़ार में कन्याकुमारी आ गई थीं । जनश्रुति के अनुसार कालिदास के सामने ही उन्होंने अपनी जीवन लीला समाप्त की . ‘मानस के हंस’ की रत्नावली मैया की जीवन कथा की तरह । तुलसीदास ने भवितव्यता की बात बार -बार की है । जीवन किसी अदृश्य सत्ता के इशारे पर चलता है …कालिदास बेहद मुश्किल समुद्री यात्रा के बाद श्रीलंका पहुँचे। अनुराधापुर रात में पहुंचे थे और राजभवन समझकर एक भव्य महल के सामने सुबह का इंतज़ार करते हुए उम्र जनित थकान से निढाल होकर सो गए। वह महल अनुराधापुर की अतीव सुंदरी नगर वधू कामिनी का था जो राजकुमार कुमारदास की प्रेयसी भी थी। महल के सामने अनजान वृद्ध मुसाफ़िर को देखकर अंदर बुलवा लिया गया था । कालिदास संकोचवश अपना सही परिचय नहीं दे पाये थे ,इसके बावजूद उन्हें अतिथि कक्ष में जगह मिल गई। नगरवधू की आँखों में उस रात मौज़ूद भयानक उदासी और परेशानी को कालिदास नजरअंदाज नहीं कर पाये। कारण पूछ ही लिया।पता चला कि वह रात उनके जीवन की निर्णायक रात थी। दरअसल, कुमारदास और कामिनी का विवाह एक कविता की अधूरी पंक्ति की पूर्ति की शर्त की वजह से स्थगित था । आज उस शर्त को पूरा करने की मियाद ख़त्म हो रही थी। नगरवधू से रानी बनने की ऊँची उड़ान और उसमें कविता के कुछ शब्दों को पूरा करने की आश्चर्यजनक शर्त धनुष- भंग प्रसंग की तरह! राजा लोगों का क्या कहा जाये? बहरहाल! कुमारदास ने पालि के प्रभाव में संस्कृत में कविता की जो पंक्ति लिखकर दी थी उसका हिंदी तर्जुमा कुछ इस तरह था :-
"कमल के ऊपर कमल खिला हो ,देखा क्या?
सुनी सुनाई बात मात्र है,ऐसा कभी कहाँ देखा..."
कालिदास ने कामिनी की समस्या का समाधान इस पंक्ति के साथ कर दिया :-
"पर प्रियवर मेरे! यह अचरज है संभव ऐसे,
मुखाम्बुज पर तेरे,दोनों कमलनयन हैं जैसे।"
कालिदास की यह काव्य- प्रतिभा ही उनके प्राणान्त का कारण बन गई क्योंकि नगरवधू कामिनी इस रहस्य को रहस्य ही रहने देना चाहती थी। इस रहस्य से पर्दा उठने के परिणाम से वह अवश्य परिचित रही होंगी !
'कुमार संभवम्' के आठवें सर्ग में अमर्यादित चित्रण से कुपित देवी पार्वती के शाप के मुताबिक़ कालिदास अमर्यादित मृत्यु के शिकार हुए ! जब नगरवधू को उनकी पोटली में मौजूद किताबों से यह ज्ञात हुआ कि जिस कवि की हत्या हो गई है वह महाराज कुमारदास के मित्र महाकवि कालिदास ही हैं,तब वह सदमा बर्दाश्त नहीं कर पाईं और उसने उसी कटार से आत्महत्या कर ली जिससे कालिदास की हत्या की गई थी । इस त्रासद घटना की सूचना मिलने पर राजकुमार कुमारदास इतने विचलित हुए कि उन्होंने कालिदास की जलती हुई चिता में कूदकर जान दे दी ! यह घटना सिंहली साहित्य और समाज का एक ऐसा करुण पक्ष है जिसका उल्लेख श्रीलंका में आज भी बेहद अफ़सोस के साथ होता है । महाकवि कालिदास के लिए सिंहली समाज में जितना सम्मान है उसकी तुलना करने के लिए मेरे पास सिर्फ़ एक ही रूपक है और वह है जितना हिन्द महासागर में पानी । पानी खारा है ,इसलिए कि इसमें अफ़सोस के आँसू ज़्यादा हैं ! बुद्ध की करुणा से आप्लावित देश में कालिदास के कारुणिक अंत की कथा को कथा ही समझा जाये, यही मेरा नम्र निवेदन है। इतिहास वाले इस कथा में भारत श्रीलंका के हजारों साल के नरम मुलायम धागे को देखें। उस धागे को जिसे जायसी ने 'पद्मावत' में देखा । सिंहलद्वीप की सुंदरता सिर्फ़ प्रकृतिप्रदत नहीं है। विचारपरक सुंदरता है वह । तरह -तरह के परस्पर विरोधी विचार और जीवन दृष्टियाँ जिस द्वीप में संगम -संस्कृति की तरह एक दूसरे से एक वटवृक्ष की लताओं की तरह गुलशन के कारोबार में सदियों से अनवरत ऑक्सीजन दे रही हैं। जिस वृक्ष की हम वहाँ रक्षा नहीं कर पाये जहाँ उसने तथागत पैदा किया, वह वृक्ष वहाँ आज तक इसलिए भी लहलहा रहा है क्योंकि उसके परितः उस देश ने उस विचार को जीवित रहने के लिए भी खाद और पानी दिया है। सत्तर फ़ीसदी सिंहली आज भी अपनी हर साँस में बुद्ध को जीवित रखे हुए हैं। पद्मिनी बुद्ध के विचारों से आलोकित होकर ही दुनिया की सबसे सुंदर स्त्री है। जायसी सिंहलद्वीप में बुद्ध के प्रकाश से परिचित थे। संघमित्रा जो प्रकाश वहाँ लेकर गईं थीं, पद्मावती शायद पुनः उसे भारत को वापस करना चाहती थीं! लेकिन इतिहास के रथ का क्या कहा जाये? जो बुद्ध को नहीं समझ पाया,वह पद्मिनी को भला क्या समझेगा?
आनंद समारकूँ ने भारत से कोलंबो वापस लौटते हुए अपनी पहली हवाई यात्रा में मातृभूमि के सौंदर्य पर मुग्ध होकर जो कविता लिखी वह श्रीलंका का राष्ट्रगीत है। इस गीत में आप जायसी को पा सकते हैं और रवीन्द्रनाथ को भी। रवीन्द्रनाथ ने अपने संगीत के लिए श्रीलंका के मशहूर कांड्यान संगीत का उपयोग किया था। आनंद समारकूँ ने अपने गुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर से रवीन्द्र संगीत के उपहार का उपयोग कर अद्भुत सांस्कृतिक संदेश दिया। मुझे यकीन है कि जायसी लाख कहें कि उनका सिंहलद्वीप श्रीलंका नहीं है,जिसने श्रीलंका देखा है वह जानता है कि सच क्या है ? मैं बिना प्रमाण के यह कहने का साहस कर रहा हूँ कि जायसी ने अपनी एक आँख के बावज़ूद सिंहलद्वीप को पूरा देखा था!



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